बात बना के रात बिता के, भोर हुई अनजानी सी;
हमने अपनी आँखें खोलीं - ठान लिया मनमानी की।
कोई आगे पीछे होता, तो शायद चिंता होती
अपनी राह अकेले की थी- मौज-ए-दरिया रवानी की।
ऐसा तो अक्सर होता है - लोग तो ताने मारेंगे,
परवाह भला क्यों - जीवन आनी-जानी की।
आपको देखा आपको चाहा, आपसे बातें करते हैं,
सांझ ढलेगी घर लौटेंगे - क्यों सोचें रोटी पानी की।
लोगों ने कितना समझाया लेकिन हम भी जिद्दी थे,
घर का छप्पर फूंका हमने, क्यों ऐसी नादानी की।
राह में कांटे धुप मिलेंगी, बारिश भी तन्हाई भी -
अपना क्या खोना-क्या पाना, बातें खूब कहानी की।
2 टिप्पणियां:
कोई आगे पीछे होता, तो शायद चिंता होती
अपनी राह अकेले की थी- मौज-ए-दरिया रवानी की।
वाह बहुत खूब
रचना के भाव बहुत पसंद आये
आपका स्वागत है सुबीर संवाद सेवा पर जो मेरे गुरु जी का ब्लॉग है और वहा पर गजल के क्लास चलाती है तरही मुशायरा भी होता है
आइये और तरही मुशायरे में भाग लीजिए
Bahut khoob Bhai!
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