गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

ख्वाहिशें: दो कवितायेँ

(१)
उम्मीद के परे अस्तित्व रखतीं
ज़िन्दगी के परे पाँव फैलातीं
अपनी गुरुता का बोझ डाले
हमारे जीवन का हिस्सा बनते हुए
सब्र की मेड़ों से खिलवाड़ करती हैं;
आँखों को बार बार खोलती हैं
ऊर्जा दे जाती हैं जीने का
कभी दिख कर
कभी आस पास आकर - सहला जाती हैं
और जगा जाती हैं - ख्वाहिशें!!

(२)
गूंजती हैं सपनों में
बेचैन करती हैं नींदों में
खुली आँखों में बहकाती हैं
बेमतलब की योजनायें बनवाती
अंतर्द्वंद बढाती हैं
मुस्कुराती हैं - लज्जित भी करती हैं
हमारी लघुता को उजागर कर
बहलाती हैं - गुनगुनाती हैं
काश कभी खामोश हो पाती - ख्वाहिशें!!

बुधवार, 28 जुलाई 2010

परिवर्तन - एक कविता

सब कुछ वैसा ही है -
धुप उतनी ही गरम है
शामें उमस भरी और हवा नम है
सडकों पर कारें, बसें और वाहन हैं
ट्राफिक लाइट है - और उनके उल्लंघन को आतुर ड्राईवर भी वैसे ही हैं
ऑफिस है - फाईलें हैं,
काम अब भी आखिरी मिनटों में ही ख़त्म होता है
उदास सुबहें और बेचैनी से भरे दिन हैं
शाम में खेल है - और थकावट में डूबने को आतुर तन है
जिम की निर्जीविता है - स्विम्मिंग की उमंग है
रात की उकताहट है और इन्टरनेट की आवारगी है
नींद की ख्वाहिश फिर भी बाकी है।
माँ से बातें करने की इच्छा है
कुछ पुराने दोस्तों से मिल पाने की उम्मीद अब भी बाकी है
परिवर्तन एक निरंतरता है -
सब कुछ वैसा ही है।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल

बात बना के रात बिता के, भोर हुई अनजानी सी;
हमने अपनी आँखें खोलीं - ठान लिया मनमानी की।

कोई आगे पीछे होता, तो शायद चिंता होती
अपनी राह अकेले की थी- मौज-ए-दरिया रवानी की।

ऐसा तो अक्सर होता है - लोग तो ताने मारेंगे,
परवाह भला क्यों - जीवन आनी-जानी की।

आपको देखा आपको चाहा, आपसे बातें करते हैं,
सांझ ढलेगी घर लौटेंगे - क्यों सोचें रोटी पानी की।

लोगों ने कितना समझाया लेकिन हम भी जिद्दी थे,
घर का छप्पर फूंका हमने, क्यों ऐसी नादानी की।

राह में कांटे धुप मिलेंगी, बारिश भी तन्हाई भी -
अपना क्या खोना-क्या पाना, बातें खूब कहानी की।