गुरुवार, 24 जुलाई 2008

सम्भव है!

सम्भव है -
किसी दिन कुछ भी शेष ना रहे
ना मेरी स्मृतियाँ
ना मेरा एकाकीपन
ना मेरी पुस्तकें
ना मेरी लम्बी उबाऊ यात्रायें
ना मेरी थकी हुई जीवन-चर्या

सम्भव है -
तब भी शेष रहें
तुम्हारी प्रतीक्षा
तुम्हारी खिलखिलाहट
तुम्हारी जीवन्तता
तुम्हारे परोक्ष आँसू।

संभव है -
जब अतीत हमें बार-बार आहटें देकर अपनी ओर खींचे
फ़िर से उतरून गहराईयों में
फ़िर से डूबूं पुराने कलापों में

फ़िर से कुरेदूँ अपनी कविता को
फ़िर से उभारून एक नई दृष्टि
फ़िर से बिछाऊँ अपना जाल


सम्भव है -
स्वार्थ फ़िर से मुझ पर हावी हो
अंतर्द्वन्द्व फ़िर भी बाकी हो
चिमनियों का धुंआ और भी गहरा हो
अनिश्चय की आशंका व्यग्रता को बढाए
नियति अपना पाश फ़िर से फैला दे
सम्भव है।