सोमवार, 16 अप्रैल 2012

परतें


शायद तुम्हें याद भी ना हो -
वो पहली परत, 
अनायास ही जो चिपका दी गयी थी
तुम्हारे चेहरे पर
और  जिसे अपना सच मान लिया था तुमने
तब-से अब तक
जाने कितनी ही परतें
तुमने खुद ही चिपका ली,
या चिपक जाने दिया
दोस्तों - साथियों - दुश्मनों के हाथों -
अपनी सुविधा के मुताबिक.
और जीते रहे उस हर एक झूठ को
छुपा लिया खुद को उन परतों के पीछे
महफूज़ मान कर.
और अब रोज सुबह जो शख्स आईने में तुम्हारे सामने होता है
वो तुम्हारा अक्स नहीं है,
वो समुच्चय है उन तमाम परतों का,
उससे भला कैसी उम्मीद?
अब तो तुम्हें डरना चाहिए - उस शख्स से
जो परतों के हटने के बाद तुम्हारे सामने होगा -
पहचान पाओगे उसे?