बुधवार, 27 नवंबर 2019

फ़ुरसत में

कभी फ़ुरसत  मिले तो बताना
साथ बैठेंगे  - सुनाएंगे अपने सपने
बांटेंगे उनके टूटने का दर्द
हो सके तो सुन लेना  - अगर कह ना भी पाऊं, तो समझ लेना।

कभी फ़ुरसत मिले तो बताना
कि मेरा इंतज़ार अब तुम्हें परेशान क्यों नहीं करता  -
क्या मेरी ज़िद तुम्हें अब भी बेचैन करती है?
बता देना - क्योंकि पूछना तो मुझे अब भी नहीं आता।

यह भी बताना कि बंटवारों में सपनों का क्या होता है?
वो भी बंटते हैं - या सिर्फ टूट कर बिखरते भी हैं।
उम्मीदें बुनना क्या इतना ही आसान होता है?
लड़ाई की ज़िद की ज़द कहाँ तक होती है?
पूछ तो मैं फिर भी नहीं पाऊंगा - तुम बताने की कोशिश करना।

फ़ुरसत मिले ना मिले  - उम्मीदों को मत छोड़ना
समय न मिल पाए शायद - तुम आँखें खुली रखना
नींद भले पूरी ना हो - ताज़गी भरपूर रखना
कह तो मैं कुछ भी नहीं पाऊंगा  - मेरी उम्मीदों को मत तोड़ना !!

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

बहुत कुछ शेष है

कितनी ही कहानियां  - जो कहनी हैं, सुननी हैं
कितनी उम्मीदें - खुद से, औरों से
कितनी ही ख्वाहिशें और ढेर सारे रास्ते
ढेरों यात्राएं और उनसे जुड़ा एकाकीपन
बहुत कुछ शेष है.

जो संवाद अधूरे हैं- पूरे करने हैं
कविताएं जो सिर्फ ज़ेहन में हैं - लिखी जानी हैं
पुस्तकें जो पढ़ी जानी थीं - आधी पढ़ कर रखी हैं
कई सारी बचपन की चिट्ठियां - अब भी लिखी जानी बाकी हैं
आशायें, सपने  - तमाम नाकामियों के बाद भी बची हुई हैं।

वो बातें जो सिर्फ सोची गईं  - वो तारीफ़ें वो शिक़ायतें
जो तुच्छ सी लगीं थीं
वो उम्मीदें - जो ज़िद से छोटी साबित हुईं
वो दुःख जो कमज़ोर तो कर गए, पर दूसरों से छुपा दिए गए
अब भी बचे हैं.

खुली आँखों वाले वो सारे सपने, अब भी टिके हैं
भटकाव के इस दौर में  - हिम्मत देती वो बातें
उलझन भरे इस वक़्त में - बचपन में पढ़ी गईं पतली किताबों की सीख़
कुछ बुनियादी भरोसे
कुछ अडिग ज़िद
और ढेर सारा समर्पण  -
कितना कुछ तो शेष है.